दुख - दर्द का साथी
देख रही हूँ यें बात आठ- दस महीनों से कुछ ज़्यादा ही होने लगी है, आज फिर हुई। जब से ही मैंने सुना है परेशान सी हूॅं। किसी गैर को भी मेरा तनाव साफ़ दिख रहा होगा।अनमने से हावभाव हो गए है। भूख भी नही लग रही। क्या करूं क्या ना करूं? मन ही मन में कहते कर संध्या टेरेस पर चक्कर मार रही थी।
संध्या को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। मुझे भी पता नही क्या हो जाता है जब भी ऐसी बातें सुनती हूॅं खून खौलने लगता है। मन करता है जाकर उस डॉक्टर का गला दबा दूं लेकिन क्या मैं ऐसा कर सकती हूॅं?
नहीं कर सकती। पति - परमेश्वर है वों मेरे। माॅं ने अभी तक यही तो समझाया है कि पति का हर कदम पर साथ देना तभी तो स्वर्ग में स्थान मिलेगा लेकिन क्या इस काम में मैं अपने पति का साथ देकर पाप की भागीदार नहीं बन रही? बिल्कुल बन रही हूॅं। क्या गंगा में वों सारे पाप जो हमारे कर्मों द्वारा किए जाते हैं उसे सिर्फ डुबकी लगाने से धोया जा सकता है? हर साल हम गंगा में डुबकी लगाने अवश्य जाते हैं और आज इसकी वजह मुझे मालूम पड़ गई है। नही ... नही पहले तो मुझे इस बात की जानकारी नहीं थी लेकिन अब जब मैं यह पहचान चुकी हूॅं तो ऐसे में मुझे कुछ ना कुछ ऐसा तो करना ही होगा जिससे कि मेरे पति सबकी नजर में बाइज्जत बरी हो सकें।
माना कि वह मेरा ध्यान रखते है। मुझे वें सारी सुख - सुविधाएं भी डाॅक्टरी का कर्म करके ही देते हैं जो एक पत्नी को चाहिए लेकिन इन सुविधाओं के आगे में मैं किसी के जीवन को दांव पर नहीं लगा सकती। दबी जुबान में पूछा भी था तो उन्होंने यही कहा था कि मरीज के बारे में मेरे अकेले भर सोचने से कुछ नहीं होता। मेरे अलावा भी उस अस्पताल में बहुत सारे डाॅक्टर्स हैं जो वों सबकुछ करते हैं जिससे कि उनके स्वार्थ हित की पूर्ति हो सकें।
उनके जरूरी कागजात घर में ही छूट जाने के कारण आज अस्पताल गई थी जब से वापस आई हूॅं इसी चिंतन में लगी हूॅं कि मुझे क्यों बुरा लग रहा है? स्वार्थ ने क्या मुझे भी बदल दिया है? सच में आज मेरी सोच बदल चुकी है और मैं डॉक्टर साहब की सोच भी बदल सकती हूॅं लेकिन क्या यह संभव है?
हां! यह संभव है। शादी की पहली रात ही इन्होंने एक ही बात कही थी कि तुम मेरी पत्नी कैसी हो मेरे जीवन में यही मायने रखता है क्योंकि यें घर हम दोनों का है और आज से हर काम में एक दूसरे की सहभागिता हमें ही रखनी होगी। सुख समृद्धि रहें या चली जाएं मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे तो सिर्फ अपने पति के बारे में सोचना है। उनके डाॅक्टर के किरदार की छवि जो दिन प्रतिदिन लोगों की नजर में धूमिल पड़ रही है उसे अपने उचित कर्मों द्वारा प्रकाशमय करना है। मैं उन्हें अपने निजी सुख - सुविधाओं के लिए ऐसा नही करने दूंगी, कभी भी नही।" बड़बड़ाते हुए संध्या ने अपनी स्कूटी निकाली और निकल पड़ी।
संध्या! ऐसा नहीं हो सकता। तुम मुझे जीवन के सफर में
यूं अकेला छोड़कर नहीं जा सकती। आज से मैं अपने निजी हितों के बारे में नहीं सोचकर मरीजों के हित को ही सर्वोपरि रखते हुए उनका इलाज करूंगा। किसी भी जीव को मारने का नहीं बल्कि उसे बचाने का हरसंभव प्रयास मेरा जारी रहेगा। मैंने पैसों के लिए अपने इस अस्पताल में ही बहुत सारे ऐसे गुनाह किए हैं जो एक डाॅक्टर को नहीं करने चाहिए थें। माना कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेन्सी एक्ट के कुछ शर्तों पर मेडिकल डॉक्टरों द्वारा गर्भपात कराने की अनुमति देता है लेकिन सिर्फ १२-२० हफ्ते तक ही लेकिन हम जैसे डाॅक्टर्स तो लिंग परीक्षण के बाद यह अपराध करते हैं जिसमें कभी - कभी तो मांओं की मौत भी हो जाती है लेकिन हमें कोई असर नहीं होता। हमारा काम तो वही रहता है सिर्फ मरीजों के नाम और चेहरे बदल जाते हैं हम नहीं बदलते।
गर्भपात से लेकर अंगों के आदान - प्रदान और उनके प्रति हमारे द्वारा किए गए व्यवहार ने ही मुझे यह दिन दिखाया है। मैं तुम्हें और अपने होने वाले बच्चे को खो नहीं सकता। हे ईश्वर! मुझे मेरे किए गुनाहों की सजा देते हुए मुझे मौत दें दो लेकिन मेरी पत्नी और उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को बख्श दो। उन दोनों में से किसी ने भी कोई गुनाह नहीं किया है। अपराध तो मुझसे हुआ है, मेरे इन हाथों से हुआ है। यह जानते हुए भी कि मैं यह गुनाह कर रहा हूॅं मैं करता रहा सिर्फ लालच और सुख - सुविधाओं के मोह में पड़कर। मेरी पत्नी को जीवित कर दो भगवन्! मैं आपको वचन देता हूॅं कि आज के बाद मैं यह गुनाह कभी भी नहीं करूंगा।
"आपको अपने अपराध की परख हो गई इससे खुशी की बात मेरे लिए कुछ भी नहीं है। हम दोनों और हमारा बच्चा ईमानदारी से कमाए गए सीमित साधनों में ही अपना जीवन व्यतीत कर लेंगे लेकिन ऐसा कोई भी अपराध नहीं करेंगे जिससे कि हमें पाप का भागी होना पड़े। डाॅक्टर होने के नाते अच्छे और बुरे कर्मों में आपकी सहभागिता ही समाज में आपका स्थान तय करेंगी। मैं नहीं चाहती थी कि आपके नाम के आगे या पीछे बुरे डॉक्टर का टैग लगें इसलिए मैंने आपके दोस्त दिनेश के साथ मिलकर यह नाटक किया। ऐसा करने के पीछे मेरा उद्देश्य गलत नहीं था बल्कि अपनों की खोने का दर्द मैं आपको एहसास दिलाना चाहती थ। जब तक हम मनुष्यों को कोई भी बात अपने पर नहीं गुजरती, हमें खुद ठेस नहीं लगती तब तक हमें दूसरों के दुख - दर्द का अहसास तक नहीं होता है। इस अस्पताल में और आपके पास आए हुए मरीजों के दुख - दर्द को आप को समझना चाहिए और जब तक आप उस दर्द का एहसास खुद पर नहीं समझेंगे,उसके दुख दर्द का साथी नहीं बनेंगे तब तक आप बेहतर इलाज नहीं कर सकते हैं। माना कि मेरा समझाने का तरीका आपके लिए कष्टदायक था लेकिन मेरा उद्देश्य आपको कष्ट देना बिल्कुल भी नहीं था।"
रोते हुए डॉ. अविनाश ने अपनी पत्नी की बात सुनकर ऑंखें जैसे ही उठाई सामने अपनी पत्नी को जीवित अवस्था में देखकर तुरंत ही उसे गले लगा लिया। आगे से कुछ भी गलत काम नहीं करने का प्रण लेकर जब डॉ. अविनाश और उनकी पत्नी संध्या वापस घर आ रहे थे दोनों के ही चेहरे पर सुकून दिख रहा था जो आने वाले भविष्य के लिए शुभ संकेत था।
धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻
गुॅंजन कमल 💗💞💓
०६/०७/२०२२
# डाॅक्टर विशेषांक
# लेखनी
# लेखनी कहानी
Milind salve
10-Jul-2022 07:40 PM
👏👌🙏🏻
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Seema Priyadarshini sahay
08-Jul-2022 08:51 PM
Nice post 👍
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Ilyana
07-Jul-2022 08:44 PM
Bahut sundar rachna
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